कुछ सुबह ऐसी होती हैं जो हमारे जीवन को पूरी तरह से बदल देती हैं। हम दोराहे पर खड़े हुए सोच रहे होते हैं कि किस ओर जाएँ। पूरी तैयारी के बाद भी, भविष्य से डरे हुए हम आँख बंद करके प्रार्थना करते हैं कि कोई हमारी उँगली पकड़ के सही रास्ते पर छोड़ दे। कभी-कभी आस्था, अभ्यास या गुरु के सहारे हम सही रास्ता पकड़ लेते हैं। लेकिन कई बार हम असफल हो जाते हैं, और यही डर हमें सताता रहता है। हालाँकि, ये डर बहुत आवश्यक है क्योंकि ये डर ही हमें सही अर्थों में साधक बनाता है।
1983 का जून का महीना भी ऐसी कई सुबहों से भरा था। जब भारतीय क्रिकेट टीम हर दिन अपनी मेहनत के सहारे सितारों से भरी किसी टीम को हराने का सपना देखती थी। मैंने इस वर्ल्ड कप की अपने बड़ों से बस कहानियाँ सुनी थी लेकिन अब 83 फ़िल्म के ज़रिए इसका आँखों देखा हाल भी देख लिया। फ़िल्म ने इन कहानियों के साथ पूरा न्याय किया है। रणवीर सिंह के साथ-साथ सभी कलाकारों ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। ये फ़िल्म आपको लगभग चालीस साल पीछे ले जाती है और आपको दिखाती है कि कैसे एक कमजोर मानी जाने वाली टीम सामूहिक प्रयास से विश्व की अग्रणी टीमों को धूल चटाती है। फ़िल्म में क्रिकेट बहुत है लेकिन ये हंसी मज़ाक़ से भरपूर है और आपको बोर नहीं होने देती।
हम सबको भाग्य से बहुत नाराज़गी रहती है। क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि ये दूसरों की सहायता करता है और हमारे लिए कुछ नहीं करता । लेकिन ये भाग्य ही है जो इस विश्व का संतुलन बनाए हुए है। नहीं तो सबल और प्रतिभाशाली हमेशा जीतता जाएगा और निर्बल हारता । भाग्य ही गरीब और निर्बल की आशा है। यह आशा ही उसे प्रयत्नशील बनाती है और एक दिन विजयी। अगर ये आशा नहीं होती तो भारत जिसने तब तक के सभी विश्वकपों में बस एक ही टीम को हराया था, वेस्ट इंडीज़, ऑस्ट्रेलिया या इंग्लैंड जैसी टीमों को हराने के सपने नहीं देखता।
83 जैसी कहानियाँ कही जाती रहनी चाहिए और हर पीढ़ी को ये चाव से सुननी चाहिए। क्योंकि ये कहानी सीना ठोक कर कहती है कि बलवान, धनवान और प्रतिभावान भी हारते हैं, बस उन्हें हराने वाले सिरफिरे चाहिए। और फिर कमजोर को जीतते हुए देखने का मज़ा ही कुछ और है। 25 जून, 1983 एक ऐसी सुबह थी जिसने ना कुछ खिलाड़ियों के जीवन को बदला, बल्कि उनके परिवार, समाज और देश में खेल के माहौल के साथ – साथ क्रिकेट को ही बदल दिया।
2 Responses
erfaesrwe
dfsdffs