मेरी बड़ी बेटी धृति लगभग ३ वर्ष की थी जब मैं उसके साथ एक शाम को हैदराबाद की एक गली में घूम रहा था। धृति ने जैसे ही एक चींटे को देखा, वो उसे मारने लगी। मैंने उसे समझाया कि ये भी हमारी तरह जीव है और इसे भी पीड़ा होती है। धृति का ये अहिंसा का पहला पाठ था। दस कदम चलने के बाद एक मोड़ पर हमने देखा कि एक पिता अपने ४-५ वर्ष के पुत्र को गली के कुत्ते पर पत्थर से निशाना लगाना सिखा रहा था । धृति ये दृश्य देखकर मेरी तरफ़ देखने लगी। मैंने उसे बोला ये भी ग़लत है।
मुझे पता है कि मेरा अहिंसा का पाठ ग़लत नहीं था लेकिन अधूरा ज़रूर था। अहिंसा सिखाने के साथ मेरा ये कर्तव्य बनता है कि मैं अपनी बेटी को ऐसे पलते हुए हिंसक बच्चों से भी निपटना सिखाऊँ। इस अधूरेपन के लिए हम ज़िम्मेदार नहीं हैं बल्कि वो इतिहास है जिसने गांधी जी के अहिंसा के नीचे जलियाँवाला बाग जैसे हत्याकांड दबा दिए। हमने गांधी – नेहरू के लिये, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और ऊधम सिंह को बिना समझे अपने इतिहास से हटा दिया। शेर-चीते भी अपने बच्चों को भेड़ियों से बचना सिखाते हैं, हम तो फिर भी बहुत समझदार हैं।
मेरी समझ से इतिहास विषय इसलिए पढ़ाया जाता है कि हम वो ग़लतियाँ नहीं दोहराएँ, जिनसे हमारे समाज, संस्कृति या देश को बहुत आघात पहुँचा हो। इतिहास भी अपने आपको दोहराता रहता है, जब तक हम उससे सीख नहीं जाते । और सीखने के लिए इतिहास को अधूरा नहीं होना चाहिए। किसी फ़िल्म के क्लाइमैक्स की तरह ‘अहिंसा परमो धर्म’ या ‘क्षमादान महादान’ अंत में अच्छा लगता है। लेकिन इसकी शुरुआत तैमूर या गजनवी के आक्रमण, पृथ्वीराज के हारने के बाद उनकी दुर्दशा, विजयनगर के खंडहरों या फिर जलियाँवाला कांड में गोलियों से भुने लोगों से होनी चाहिए।
कहते हैं कि कलिंगा, शेष भारत से संस्कृति और सम्पन्नता के स्तर में बहुत आगे था । और शायद इसलिए कलिंग के लोगों को अपनी संस्कृति अपने प्राणों से अधिक प्रिय थी। उनके बलिदान ने उस समय के विश्व के सबसे शक्तिशाली राजा अशोक को राज मोह से विलग कर दिया। लेकिन ये होने से पहले कलिंगा तहस-नहस हो गया था। विजयनगर (हम्पी) एक और उदाहरण है जो हर रूप में समृद्ध और सम्पन्न था, लेकिन जब उस पर बाहरी आक्रमण हुआ तो स्त्रियों की चीत्कार, आग और धूएँ के सिवाय कुछ नहीं बचा। अहिंसा बहुत अच्छा आचरण है, लेकिन वो उन्हें ही शोभा देता है जो शक्तिशाली है और दुष्टों का दमन करना जानते हैं।