समय यूंही पंख लगाकर उड़ जाता है। कभी आकाश में इतने तारे होते थे कि खाली आकाश मुश्किल से दिखता था, आज तारे देखने के लिए आंखें तरस जाती हैं। कभी आकाश में गिरता उल्कापिंड एक आत्मा होती थी जो मरने से जन्म लेने तक का सफर तय कर रही होती थी, अब आत्मा जीवित लोगों में भी सो चुकी है। कभी चांद पर बुढ़िया सूत कातती थी, आज वहां काले भद्दे पहाड़ हैं। बचपन के बहुत वर्ष उस बुढ़िया और चरखे की चांद पर सही जगह अनुमानित करने में निकल गए। हमें तीसरी दुनिया शायद इसलिए कहते हैं कि ये बचपन भी मानव के चांद पर पहला कदम रखने के बहुत वर्षों बाद शुरू हुआ था। कोई नहीं, अब हम आगे बढ़ रहे हैं तो दुखी भूत के पास क्यों जाएं। प्यारे और अच्छे भूत की बात करते हैं।
चांद की निगरानी में किसी के यौवन को टटोलते- टटोलते हम यूँही किशोरावस्था से युवा बन गए। समय का पता नहीं लगा, बचपन का चांद जो कभी मामा हुआ करता था, युवावस्था में, प्रेमी के लिए प्रेमिका और सुहागिन के लिए साजन बन गया।
सदियों से हमें चांद पर विजय पाने की चाहत है। भगवान कृष्ण ने भी एक बार यशोदा मां से चांद को पकड़ने के लिए हट कर दी – मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहों। मैया ने भी पानी के कटोरे में चांद को कैद कर लिया और लल्ला को दे दिया। कटोरे में चांद हम भी कभी पकड़ नहीं पाए लेकिन वो बचपन का चाँद कटोरे सहित आज भी आँखो में क़ैद है । पहली बार जब ” चारु चंद्र की चंचल किरणें ” पढ़ी थी तो आँखों के सामने पृथ्वी का एक दृश्य बना था, जो हम अब तक नही भुला पाए। चांद के लिए कौतूहल कभी कम नहीं हुआ। दीवाली पर रात को भेजे गए अधिकतर रॉकेट चांद की और ही भेजे जाते थे । दशहरा पर टेसू-झेंझी का विसर्जन करके दसियों मंदिरों में खीर खाई जाती थी। चाँदनी रात में खीर का प्रसाद अमृत पान के जैसे लगता था। चांद की निगरानी में किसी के यौवन को टटोलते- टटोलते हम यूँही किशोरावस्था से युवा बन गए। समय का पता नहीं लगा, बचपन का चांद जो कभी मामा हुआ करता था, युवावस्था में, प्रेमी के लिए प्रेमिका और सुहागिन के लिए साजन बन गया।
इस इतिहास को देखते हुए, चंद्रयान -3 के प्रक्षेपण पर देश का अधीर और उत्साहित होना सामान्य सी बात है। 14 जुलाई को सुबह कुछ लोगों का तो ऐसा हाल था जैसे कि वो पहली बार बोर्ड का एग्जाम देने जा रहे हों। लेकिन इस पागलपन में मुझे थोड़ा अंतर दिख रहा है। ये वो बच्चे, प्रेमी या कवि वाला पागलपन नहीं है। ये कला – साहित्य वाला पागलपन नहीं है, ये विज्ञान वाला पागलपन है ये देशप्रेम वाला पागलपन है। ऐसा लगता है कि जैसे पूरा देश एक दिशा में चल पड़ा है। चंद्रयान -3 की सफलता अभी एक महीने में पता लगेगी। लेकिन चंद्रयान -2 की विफलता (आंशिक सफलता) से ये साफ है कि अब इन मिशनों की सफलता केवल चांद तक पहुंचने में नहीं है। इनकी सफलता इन बातों में भी है कि हम विफलता को कैसे लेते हैं, हम एक मिशन से कितने भावी वैज्ञानिकों को जन्म दे पाते हैं, और देश को क्रिकेट के अलावा किसी बात पर एक जुट कर पाते हैं। किसी दिन हम चांद पर पैर भी रखेंगे, काले पहाड़ों के पत्थर भी लायेंगे। लेकिन हमारे लिए चांद फिर भी मामा, प्रेमी और प्रेमिका का द्योतक रहेगा। अंतर यह है कि चांदनी की खीर और भी स्वादिष्ट हो जायेगी, और चांद पर लिखी गई कविताओं में पहले से अधिक रस झलकेगा।