बचपन के “मिट्टी के घर” वाले खेल में बहुत कुछ छुपा था । हम घंटो मेहनत करके एक घर बनाते थे। दूसरे दिन हमें फिर ऐसा लगता था कि शायद कुछ कमीं रह गयी, तो मिटाकर दूसरा बनाते थे। और तब तक ऐसा करते रहते थे जब तक संतुष्ट नहीं होते थे। जब मन का घर बन जाता था तो ख़ुशी में झूमते फिरते थे । फिर तभी कोई हमसे बड़ा आकर उस घर को तोड़ देता था । उसे भरपूर गाली, जितनी जब आती थीं, देकर फिर एक नया घर बनाने में लग जाते थे।
आज के हमारे प्लान भी उस मिट्टी के घर के समान हैं, बनते बिगड़ते रहते हैं । जब वो पूरी तरह बन जाते हैं, तो किसी दिन यकायक कोई हवा का झोंका उन्हें तोड़ के निकल जाता है । और हम फिर मिट्टी इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं ।